दशावतार विष्णु का प्रतिद्वन्द्वी है दशानन। टेन कमांडमेंट्स का प्रतिकल्पी है दशानन । दशरथ के पुत्र की प्रति-सैद्धांतिकी। दशानन जिसका आतंक दसों दिशाओं में था। दशानन कि जिसके कई चेहरे हैं। दशानन कि जिसके चेहरे पे चेहरा है। प्राइमा फेसाई ही जो धूर्त लगता है, या लगता है कि उसकी सिर्फ फेस वैल्यू ही है। रोमन मिथक शास्त्र के जानुस को लेकर शब्द बना है- जानुस फेस्ड यानि दोमुंहा। रावण की क्या गति जो वह दसमुंहा है। रावण तो मुंहजोर है। उसके दरबारी भी मुंह देखी बात करते हैं।
हनुमान उसे मुंहतोड़ जवाब देते हैं। अंगद भी अपनी मुंहफट शैली में देते हैं। तब रावण कितना ही ब्रेव फेस रखने का प्रयास करें, लेकिन वह स्ट्रेट फेस ही नहीं रख पाता।
"फेस" को विद्वान एक शारीरिक अंग न मानकर एक समाजशास्त्रीय अवधारणा मानते हैं। ब्राउन एवं लेविन्सन ने कहा: 'Face is something that is emotionally invested, and than can be lost, maintained, or enhanced, and must be constantly attended to in interaction. In general, people cooperate in maintaining face, in interaction, such cooperation being based on the matual vulnerability of face'
चीनी विद्वान लिन युहांग ने चीन में "आनन” के मनोवैज्ञानिक अर्थ की अच्छी चर्चा की है : Interesting as the Chinese physiological face is, the psychological face maks a still more fascinating study. It is not a face that can be washed or shaved, but a face that can be "granted" and "lost" and "fought for" and "presented as a gift". Here we arrive at the most curious point of Chinese social Psychology. Abstract and intangible, it is yet the most delicate standard by which Chinese social intercourse is regulated.
रावण के दस-वदन को हमें भी इसी अर्थ में लेना होगा। रावण दस तरह की बातें बनाता होगा। रावण दस तरह के मुंह बनाता होगा। चीन में चेहरे के लिए एक शब्द है: mianzi जिसका अर्थ है : सामाजिक प्रतिष्ठा। चीन में चेहरे के लिए दूसरा शब्द है lian जिसका अर्थ है: नैतिक चरित्र। रावण की सामाजिक प्रतिष्ठा संकट में थी। उसके सामने राम का नैतिक चरित्र विख्यात था। राम के साथ युद्ध में रावण को loss of face तो होना ही था।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री अविंग गाफमैन की दो रचनाएं 'मुख' पर है। एक लेख है: On Face of Work: An Analysis of Ritual Elements of social Interaction दूसरी किताब है : Interaction Ritual : Essays on Face-toFace Behaviour.
गॉफमेन के अनुसार मुख का एक मुखौटा (mask) है जो सामाजिक इंटरएक्शन की विविधता के अनुसार बदलता रहता है। रावण का आनन-आधिक्य उसकी अविश्वसनीयता का रूपक है।
राक्षस राज रावण के राज में अपहृता और बलात्कृता स्त्रियों की भरमार थी। रावण संहिता में इसका विस्तृत उल्लेख मिलता है 'निवर्तमानः संहृष्टो रावणः स दुरात्मवान/जने पथि नरेन्द्रर्षिदेवदानव कन्यकाः' उसने (रावण ने) रास्ते में मनुष्यों, ऋषियों, दानवों और देवताओं की कन्याओं का जबर्दस्ती अपहरण कर लिया। तुलसी के 'नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहिं' में क्या यही कन्याएं हैं? क्या रावण ने निरन्तर अत्याचार के जरिए उनकी अनुगामिता (compliance) हासिल कर ली है? क्या बलात्कार को उसने भी पालतू बनाने के उपकरण (instrument of domestication) की तरह इस्तेमाल किया है? क्या अब लंका में अपहृत कर लाई गई मनुष्यों, नागों, देवताओं और गंधवों की कन्याएं वही करती हैं जो यह राक्षस करवाना चाहता है? अपने रूपजाल से मुनियों के मन को भ्रष्ट करना? क्या इस रावण ने उन कन्याओं के मनोबल को इतना तोड़ दिया है कि वे पालतू फरमाबरदार आत्मा (docile deferential soul) ही रह गई हैं? रावण संहिता को पुनः उद्धृत करूं तो 'नाग गंधर्व कन्याश्च महर्षि तन्याश्च याः/दैत्य दानव कन्याश्च विमाने शतशोडरूदन्' कि गंधर्व, नागों, महर्षि, दानवों, दैत्यों और देवताओं की सैकड़ों कन्याएं विमान में बैठी रो रही थीं। इसी में उसके बलात्कार का भी उल्लेख है। इदं त्वसदृशं कर्म परदाराभिमर्शनम्/यस्मादेष परक्यासु रमते राक्षसाधमः- परन्तु यह जो परस्त्रियों के साथ बलात्कार कर रहा है, यह दुष्कर्म इसके योग्य नहीं है। यह अधम राक्षस परस्त्रियों के साथ रमण करता है। रावण के बलात्कार के बारे में अन्यत्र कहा गया है : 'कामभोगाभिसंरक्तो मैथुनायोपचक्रमे।' 'अरण्यकांड में 47वें सर्ग में स्वयं रावण अपने मुख से कहता है कि : मैं इधर उधर से बहुत सी सुंदरी स्त्रियों को हर लाया हूं। सुंदरकांड में बीसवें सर्ग में फिर उसकी स्वीकारोक्ति है कि "परायी स्त्रियों के पास जाना अथवा बलात् उन्हें हर लाना यह राक्षसों का सदा ही अपना धर्म रहा है, इसमें संदेह नहीं।” रावण के द्वारा इनका अपहरण मानस में बालकांड की इन पंक्तियों में भी व्यक्त हुआ है :- देव यक्ष गंधर्व नर किन्नर नाग कुमारि /जीति बरी निज बाहुबल बहु सुंदरि बर नारि॥
तुलसीदास के हनुमान जी जब लंका प्रवेश करने से पूर्व जब उसका विहगावलोकन करते हैं तो उसमें खास बात यह है कि राक्षसों के द्वीप में
राक्षसनियों का कोई उल्लेख नहीं है। नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं। ऐसा क्यों किया गया है? यह चीज शक पैदा करती है। जिनका उल्लेख है, वे सब लंका में बाहर से लायी गई हैं। इसके क्या आशय हैं? क्या लंका में कन्याओं का इस्तेमाल उनके व्यामोह से लोगों को तपभ्रष्ट करने में होता था? क्या वहां विभिन्न कोटियों की लड़कियां श्रेष्ठ प्रकृति के
पुरुषों को भरमाने में खपाई जाती थीं? स्थविरों का स्थैर्य भंग करने में? क्या राक्षसी संस्कृति अपने प्रयोजनों के 'साफ्ट सेल' में उन्हें व्यवहृत करती थी?
यह देखना दिलचस्प है कि नर नाग सुर गंधर्व कन्या भी लंका में नहीं होतीं और मुनि भी वहां नहीं होते। कन्याओं का तो अपहरण कर लंका ले आए जाने का जिक्र जगह-जगह है, लेकिन मुनियों-ऋषियों-साधु-सन्यासियों को लंका लाए जाने की चर्चा एकदम नहीं है। राक्षसी संस्कृति ब्रेन गेन में थोड़े ही यकीन रखती है। वह तो आग लगाने और सब कुछ भस्म कर देने में भरोसा रखती है। जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं/नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं। आग लगाने के लिए विस्फोट करते होंगे। इसलिए मुनियों को लंका में लाए जाने की संभावना शून्य है। फिर ये मुनियों को व्यामोह में कहां डालती होंगी? या फिर यह एक विभव, एक पोटेन्शियलिटी को बताने वाली बात है, लेकिन 'मोहहीं' क्रिया तो वर्तमानकालिक है कि ऐसी वशिमा की क्षमता वाली कुमारिकाएं यहां हैं। पाणिनी के 'भूते भविष्यति च वर्तमानबद्धा' और 'वर्तमान सामीप्ये वर्तमानबद्धा' इस सूत्र के अनुसार वर्तमानकालिक क्रिया भूत और भविष्य के अर्थ में भी काम आती है। लेकिन यदि यह एक 'भावी संभावी क्षमता की भी बात है तो वह भी क्या संकेत करती है ? मुनियों को विभ्रमित करने की कुव्वत के पीछे आशय क्या है? यदि वे मुनियों को व्यामोह में डालती हैं और मुनि यदि लंका में हैं नहीं, तो इसका अर्थ यही है कि इन कन्याओं को लंका के बाहर इन उद्देश्यों के लिए ले जाया जा रहा है। यानी कहीं एक ट्रेफिकिंग है लड़कियों की।
यह तो स्पष्ट है कि राक्षसों का घोषित ध्येय है मुनियों के काम में बिगाड़ करना। वे इसके लिए उनके यज्ञ में विध्वंस करेंगे, वे जप, योग, वैराग्य, तप सबका नाश करेंगे।तुलसी ने बालकांड में कहा: 'जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा। आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा' (जप, योग, वैराग्य, तप यज्ञ में (देवताओं के) भाग पाने की बात रावण कहीं कानों से सुन पाता तो उसी समय स्वयं उठ दौड़ता। कुछ भी रहने नहीं पाता, वह सबको पकडकर विध्वंस कर डालता। उसका काम कुल मिलाकर यही था- जेहि विधि होइ धर्म निर्मूला/ सो सब करहिं बेद प्रतिकूला।
तिस पर यह कि रावण की लंका में ‘जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी’ की स्थिति थी। वहाँ जीभ को मौन कर दिया गया है। शायद जर्मन राजनीति विज्ञानी एलिसाबेथ नोएल न्यूमेन ने जिसे मौन का दुष्चक्र (spiral of silence) कहा था, वही लंका में कभी घटा होगा। जीभ से न चीख निकलती होगी और न असहमति की आवाज। असम्मति को क्रिमिनलाइज कर दिया गया होगा। जीभ दांतों के पहरे में थी, यानी एक तरह की पुलिस स्टेट निर्मित हो गई थी।
मुक्तिबोध ने रावण को रावण की तरह पहचाना था। पर उन्हीं के वैचारिक अनुजीवी आज के दिन को रावण के ग्लोरिफ़ाई करने में बितायेंगे।
विजयेन्द्र मोहंती जैसे लोग जो रावणायन की कामिक स्ट्रिप लिख रहे हैं या तमिल नाटककार मनोहर जिन्होंने 'लंकेश्वरम' नाटक लिखा, रावण के परिप्रेक्ष्य से भी इस कथा को सुनने समझने की कोशिश कर रहे हैं। रावण एक पल को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश किया जा सकता है जिसने सीता के प्रति अपने प्यार के चक्कर में अपनी जान दे दी। एक फॉरबिडन लव, एक ट्रेजिक हीरो। अच्छी कहानी बनती है। रावण ने एक असाध्य प्रेम के लिए अपनी मृत्यु सुनिश्चित की।
लेकिन तथ्य यह नहीं है। वाल्मीकि रामायण के आधारग्रंथ में रावण का यह तथाकथित ‘डिवाइन रोमांस' किसी तरह दिव्य नहीं है। सीता को अपहृत करके लाना राम को निपटाने की तरकीब थी।
अकंपन ने अरण्यकांड के 31वें सर्ग में रावण को सलाह दी थी : “उस विशाल वन में जिस किसी भी उपाय से राम को धोखे में डालकर आप उनकी पत्नी का अपहरण कर लें। सीता से बिछुड़ जाने पर राम कदापि जीवित नहीं रहेंगे।” यह थी रावण के दिव्य प्रेम की तथाकथित प्रेरणा।
फिर शूर्पणखा रावण को सरासर झूठ बोल कर उकसाती है : "महाबाहो ! विस्तृत जघन और उठे हुए पुष्ट कुचों वाली उस सुमुखी स्त्री को जब मैं तुम्हारी भार्या बनाने के लिए ले जाने को उद्यत हुई, तब क्रूर लक्ष्मण ने मुझे इस तरह कुरूप बना दिया।" मारीच से छत्तीसवें सर्ग में वह यह भी कहता है कि “उसके बाद स्त्री का अपहरण हो जाने से जब राम अत्यन्त दुखी और दुर्बल हो जाएगा, उस समय में निर्भय होकर सुखपूर्वक उसके ऊपर कृतार्थ चित्त से प्रकार करूंगा।"
तो रावण के द्वारा सीता का अपहरण रावण के अमर प्रेम का परिणाम नहीं था। सीता के राम के प्रति अमर-प्रेम का परिणाम था। अयोध्याकांड के सत्ताईसवें सर्ग के 21वें श्लोक में सीता यह कहती हैं कि "पुरुष सिंह आपके बिना यदि मुझे स्वर्गलेाक को निवास भी मिल रहा हो तो वह मेरे लिए रुचिकर नहीं हो सकता। मैं उसे लेना नहीं चाहूंगी।" दूसरी ओर तीसवें सर्ग के 27वें श्लोक में राम कहते हैं कि "सीते तुम्हें दुख देकर मुझे स्वर्ग का सुख मिलता हो मैं उसे भी नहीं चाहूंगा।" दोनों एक-दूसरे को अभिन्न मानते हैं।
जबकि रावण के लिए सीता राम को कमजोर करने का एक अस्त्र भर है। सीता से रावण का कोई आत्मिक आध्यात्मिक लगाव कहीं नजर नहीं आता।
दूसरे जिस एक बात को रावण का पुनर्लेखन करने वाले लोग नजर अंदाज कर रहे हैं, वह है सीता को चुराकर लाना। रावण जिसकी तथाकथित वीरता के किस्से सुनाते लोग नहीं अघाते, वीर्यशुल्का सीता को उसके स्वयंवर में क्यों नहीं जीत सका? या स्वयं राम या लक्ष्मण के सामने ही युद्ध करके क्यों नहीं जीत सका? यदि राम के हाथों वीरगति की उसकी गुप्त इच्छा थी तो सीतापहरण के समय उसने यह सीधी मुठभेड़ क्यों न कर ली? योद्धा का कवच पहनकर राम के सामने क्यों नहीं गया? परिव्राजक का वेष धरकर सीता के सामने क्यों गया? हार की जीत कहानी में नायक को यह भय है कि आगे से लोग अंधे पर भरोसा करना नहीं छोड़ दें। लेकिन पौलस्त्य को भय नहीं कि उसकी इस हरकत के बाद परिव्राजकों पर लोग भरोसा करना छोड़ देंगे?
छियालीसवें सर्ग (वा.रा.अ.कां.): वाल्मीकि लिखते हैं: "राम से बदला लेने का अवसर ढूंढ़ने वाला दशमुख रावण उस समय भिक्षुरूप में विदेहकुमारी सीता के पास पहुंचा।" वह संस्कृति जो ‘भिक्षां देहि’ के सिद्धान्त पर चलती थी, उसकी इस गुणवत्ता का का ऐसा उपयोग?
इसी सर्ग के 32वें से 36वें श्लोकों में बाल्मीकि बताते हैं : "वेशभूषा से महात्मा बनकर आये हुए रावण ने जब विदेहकुमारी सीता की इस प्रकार प्रशंसा की, तब ब्राह्मण-वेष में वहां पधारे हुए रावण को देखकर मैथिली ने अतिथि सत्कार के लिए उपयोगी सभी सामग्रियों द्वारा उसका पूजन किया। पहले बैठने के लिये आसन दे, पाद्य निवेदन किया। तदनंतर ऊपर से सौम्य दिखायी देने वाले उस अतिथि को भोजन के लिए निमंत्रित करते हुए कहा- "ब्राह्मण ! भोजन तैयार है, ग्रहण कीजिये।" "वह ब्राह्मण के वेष में आया था। कमण्डलु और गेरूआ वस्त्र धारण किये हुए था। ब्राह्मण भेष में आये हुए अतिथि की उपेक्षा असंभव थी। उसकी वेशभूषा में ब्राह्मणत्व का निश्चय कराने वाले चिन्ह दिखाई देते थे, अतः उस रूप में आये हुये उस रावण को देखकर मैथिली ने ब्राह्मण के योग्य सत्कार करने के लिए ही उसे निमन्त्रित किया। वे बोलीं- "ब्राह्मण ! यह चटाई है, इस पर इच्छानुसार बैठ जाइए। यह पैर धोने के लिए जल है, इसे ग्रहण कीजिए और यह वन में ही उत्पन्न हुआ उत्तम फल-फूल आपके लिए ही तैयार करके रखा गया है, यहां शान्त भाव से उसका उपभोग कीजिए।"
सीता ब्राह्मण, भिक्षा और आतिथ्य के तीन दायित्वों को एक अजनबी के प्रति भी निभाती हैं और रावण छल और प्रवंचना को-अंग्रेजी शब्द में कहें तो chicanery को- इस सहज विश्वासी निश्छलहृदया नारी के विरुद्ध प्रयुक्त करता है।
सीता उचित ही राम और रावण में यह फर्क तभी बता देती हैं : “वन में रहने वाले सिंह और सियार में, समुद्र और छोटी नदी में तथा अमृत और कांजी में जो अंतर है, वही अन्तर राम और तुझमें है। सोने में और सीसे में, चंदन मिश्रित जल और कीचड़ में तथा वन में रहने वाले हाथी और बिलाव में जो अन्तर है, वही अंतर राम और तुझमें है। गरूड़ और कौए में, मोर और जलकाक में तथा वनवासी हंस और गीध में जो अन्तर है, वही अंतर राम और तुझमें है।"
यह सीता के लिए प्रेम नहीं, सीता का अपमान था और 48वें सर्ग (अ.का.) के अंतिम श्लोक में सीता इसे कहती भी हैं :
"राक्षस। वज्रधारी इन्द्र की अनुपम रूपवती भार्या शचि का तिरस्कार करके संभव है कोई उसके बाद भी चिरकाल तक जीवित रह जाए, परन्तु मेरी जैसी स्त्री का अपमान करके तू अमृत पी ले तो भी तू छूट नहीं सकता।"
अंग्रेजी में धोखे के लिए 'मंकी-साइंस' नाम या 'मंकी बिजनेस' नाम गलत रखा गया है। रावण जिस तरह से अपहरण को सेट अप करता है, उससे लगता है कि रावण के नाम पर मिथ्याचार का नाम होना था। क्या ऐसी धूर्तता और फरेब को हम 'पराजित' का इतिहास लिखने के नाम पर रक्षित कर सकते हैं?
लगता है, राम को ब्राह्मणवाद का प्रतिनिधि बताने वालों के लिए भी जरूरी हो जाता है कि वे रावण की मक्कारी, ईमान फरामोशी और साजिश को भी महिमा मंडित करें। चूंकि राम की किसी भी तरह लानत-मलानत करनी है तो इनके लिए जरूरी है कि रावण के द्वारा किए गए बलात्कारों पर चुप ही रहा जाए। न वेदवती के बारे में कुछ बोला जाए, न पुंजिकास्थली के बारे में कुछ बोला जाए, न रंभा के बारे में बल्कि उसके बारे में यह प्रचारित किया जाए कि उसने जिसका भी अपहरण किया, उनकी मर्जी से किया।
एक तमिल वर्शन रामायण का अभी आया है जिसमें सीता राम, लव, कुश को छोड़कर रावण के पास वापस चली जाती हैं, वीणा सीखने। यदि रावण सभी को उनकी मर्जी से ही हर ले गया था तो यह क्यों हुआ कि नलकूबर ने जब रावण को यह शाप दिया कि "वह आज से दूसरी किसी ऐसी युवती से समागम नहीं कर सकेगा जो उसे चाहती न हो। यदि वह कामपीड़ित होकर उसे न चाहने वाली युवती पर बलात्कार करेगा तो तत्काल उसके मस्तक के सात टुकड़े हो जाएंगे," तो वह जिन-जिन पतिव्रता स्त्रियों को हरकर ले गया था, उन सबके मन को नलकूबर का दिया हुआ वह शाप बड़ा प्रिय लगा और उसे सुनकर वे सब-की-सब बहुत प्रसन्न हुईं।”
पराजित के प्रति सहानुभूति और ब्राह्मणवादी संस्कृति के प्रतीकों से घृणा के चक्करों में हम रावण के किन-किन कुकर्मों को इग्नोर करेंगे?
रावण का महिमामंडन करने वालों के लिए रावण को राम तक उठाना संभव नहीं हो पाता तो वे राम को रावण तक गिराने की खुरपेंच में लग जाते हैं।
दलितों के एक नेता महान को ‘ रिडल्स ऑफ रामा’ लिखते हुए कुछ यही दिव्यानुभूति हुई हो रही होगी। वे एक कथित बौद्ध रामायण के राम और सीता को दशरथ के पुत्र-पुत्री और आपस में भाई-बहन बताने के षड्यंत्र को ऐसा सम्मान देते हुए प्रतीत होते हैं जो उनके 'इंटेलेक्चुअलिज्म' के एकदम विरोध में पड़ता है।
वे नेता महान, राम को एक पत्नी-निष्ठ नहीं मानते। कहते हैं कि वाल्मीकि ने राम की बहुत सी पत्नियां बताई हैं और उनकी बहुत सी रखैलें इन पत्नियों के अलावा थीं। पता नहीं, यह दिव्य- दृष्टि इन नेता महान को कैसे प्राप्त हुई।
जिस उत्तरकांड (वा.रा.) के आधार पर राम के विरुद्ध ढेर सारे आरोप लगाये गए, उसी उत्तरकांड के 99वें सर्ग के 7-8वें श्लोक में स्पष्ट लिखा गया है : "उन्होंने सीता के सिवा दूसरी किसी स्त्री से विवाह नहीं किया। प्रत्येक यज्ञ में जब-जब धर्मपत्नी की आवश्यकता होती थी, राम सीता की स्वर्णमयी प्रतिमा बनवा लिया करते थे।”
वे नेता महान इस स्पष्टोल्लेख की अवगणना क्यों करने पर बाध्य हुए, यह स्पष्ट नहीं होता।
अयोध्याकांड के आठवें सर्ग में आयी जिस बात का बतंगड़ वे बनाते हैं वह पंक्ति यह है :- "राम के अन्तःपुर की परम सुन्दरी स्त्रियाँ-सीता और उनकी सखियां-निश्चय ही बहुत प्रसन्न होंगी।"
इस पंक्ति से कहीं यह नहीं ज्ञात होता कि राम के सीता के अलावा और भी विवाह हुए और न यह कि यहां Concubines का उल्लेख है। यह तो सिर्फ सीता और उनकी सखियों की बात कर रहा श्लोक है।
इसी प्रकार उत्तरकांड के 109वें सर्ग में 10वें श्लोक में आया है कि “अन्तःपुर की स्त्रियां भी बालकों, वृद्धों, दासियों, खोजों और सेवकों के साथ निकल कर सरयूतट की ओर जाते हुये राम के पीछे-पीछे जा रही थीं।"
यहां भी 'अन्तःपुर' को ये नेता महान शायद मुगल हरम जैसी कोई संरचना ही नहीं समझ बैठे हैं बल्कि 'अन्तःपुर' को 'राम का अन्तःपुर' बिना वाल्मीकि के कहे ही मान ले रहे हैं। इन स्त्रियों के साथ राम के किसी सेक्सुअल सम्बन्ध की बात इस पंक्ति या इस संदर्भ में नहीं आई है।
स्त्रियों (women) का अर्थ पत्नियों (wives) से लगाना अपनी तरह की ज्यादती है।
यह नहीं समझ आता कि राम को बहुपत्नीधारी साबित करने में लगे ये नेता महान वाल्मीकि के स्पष्ट कथनों को क्यों उल्लिखित नहीं करते। वाल्मीकि कहते हैं : "राम सदा सीता के हृदयमंदिर में विराजमान रहते थे तथा मनस्वी राम का मन भी सीता में ही लगा रहता था।" (25वां श्लोक, बालकांड, अंतिम सर्ग) जबकि वाल्मीकि बताते हैं: वे श्रीराम की ही कामना करती थीं और राम भी एकमात्र उन्हीं को चाहते थे।” (श्लोक 29, सर्ग 77, बा.कां. वा.रा.)।
लेकिन इन नेता महान के मन में राम को बदनाम करने की कैसी भयंकर उत्सुकता है, इसे यों देखें। 42वें सर्ग (उत्तरकांड) के 18 1/2 श्लोक में वाल्मीकि लिखते हैं : “जैसे देवराज इंद्र शची को सुधापान कराते हैं, उसी प्रकार कुकुत्स्थकुल भूषण राम ने अपने हाथ से पवित्र पेय मधु लेकर सीता को पिलाया।"
अब इन नेता महान का प्रस्तुतीकरण देखें : "Rama was not a teetotaler. He drank liquor copiously and Valmiki records that Rama saw to it that Sita joined with him in his drinking bouts."
वे ‘शुचि' (पवित्र) शब्द की उपेक्षा कर रहे ही हैं, वे देवराज इन्द्र के 'सुधापान' शब्द की भी उपेक्षा कर रहे हैं। मधु और सुधा का अर्थ 'लिकर' से लगाना इन की अपनी डिक्शनरी का ही फल है।
एक दूसरा उदाहरण देखें। इसी प्रसंग में वाल्मीकि ठीक आगे लिखते हैं: 'उपानृत्यंश्चतराजानं नृत्यगीतविशारदाः/ अप्सरोरगऽ संघाश्च किंनरीपरिवारिताः/दक्षिणा रूपवत्यश्च स्त्रियः पावनशंगताः/उपानृत्यन्त काकु षस्थं नृत्यगीतविशारदाः/मनोभिरामा रामास्ता रामो रमयतां वरः / रमयामास धर्मात्मा नित्य परमभूषिताः ॥
अब इन जनाब की Spin doctoring का कमाल देखें : "From the description of the Zenana of Rama as given by Valmiki it was by no means a mean thing. There were Apsaras, Uragas and Kinnaris accomplished in dancing and singing. There were other beautiful women drinking and dancing. They pleased Rama and Rama garlanded them. Valmiki calls Ram as a 'Prince among women's men.' This was not a day's affair. It was a regular course of his life."
ये नेता महान इसे एक दिन की घटना नहीं बल्कि राम के जीवन का नियमित क्रम बताते हैं।
वाल्मीकि के वर्णन में इसे एक घटना की तरह बताया गया है : 'उस समय राजा के समीप नृत्यगीतविशारद अप्सराएं, नागकन्याएं और किन्नरियां मिलकर नृत्य करने लगीं। नृत्यगीतविशारद रूपमती स्त्रियां पानवश अपनी नृत्यकला का प्रदर्शन करने लगीं। दूसरों के मन को रमाने वाले पुरुषों में श्रेष्ठ राम सदा उत्तम वस्त्राभूषणों से भूषित हुई उन मनोभिराम रमणियों को उपहार देकर संतुष्ट रखते थे।”
रामायण का 'उस समय' इन नेता महान द्वारा राम की आदत बना दिया गया है- जीवन का नियमित कोर्स।
दूसरी बड़ी ग़लती इस पूरे प्रसंग में सीता की उपस्थिति का इन नेता महान द्वारा अनुल्लेख है। वाल्मीकि के विवरण की उपेक्षा कर।
तीसरे, वाल्मीकि ने राम को 'औरतों के आदमियों के बीच राजकुमार' कहीं नहीं कहा। उन्होंने कहा: 'दूसरों के मन को रमाने वाले पुरुषों में श्रेष्ठ।'
चौथे, नृत्यगीतविशारद कन्याओं को शासक आज भी पुरस्कृत करते हैं। क्या कला को 'हेडोनिज्म' माना जा सकता है?
पांचवें, देखें कि ये नेता महान किस चतुराई से उपहार को हार बना देते हैं।
छठवें, उसी प्रसंग में वाल्मीकि यह भी कह रहे हैं : "उस समय राम सीता के साथ सिंहासन पर विराजमान हो अपने तेज से अरुन्धती के साथ बैठे हुए वशिष्ठ जी के समान शोभा पाते थे।* यानी प्रसंग अपनी पत्नी के साथ बैठकर नृत्यगीतविशारदों की प्रस्तुति देखने का है, लेकिन ये जनाब Concubnies लिखने से नहीं चूकते।
सातवें, यह प्रसंग अशोकवनिका का है, पर इन नेता महान तक आते-आते वह 'जनाना' हो जाता है। गजब हैं, इनके ट्विस्ट । उनके अर्थान्वयन।
संविधान पर एक-एक शब्द पर झगड़ने वाले ये नेता महान मधु और मद्य के बीच भी फर्क नहीं कर पाए। मधु, सुरा और सोम को दारू समझना- और वह भी तब जब वाल्मीकि 'सुधा' की बात कर रहे हों- सिर्फ यह बताता है कि पूर्वाग्रह अच्छे भले आदमी को क्या कुछ लिखने को बाध्य नहीं कर देते।
वाल्मीकि के अनुसार राम सिंहासन पर वैसे बैठे हैं जैसे वशिष्ठ के साथ अरुंधती। लेकिन हमारे नेता महान को लगता है वे नशे में झौंरा रहे हैं। वाल्मीकि ने राम का सिर्फ सीता के साथ रमण बताया : “यों राम प्रतिदिन देवता के समान आनंदित रहकर देवकन्या के समान सुंदरी वैदेही के साथ रमण करते थे।" और हमारे नेता महान के वर्णन से हमें ऐसा लगता है जैसे वहां अशोकवनिका में जीनत अमान अपने साथियों के साथ धुत्त होकर दम मारो दम गा रही हों।
कितनी कोशिश कर लो भाई। राम राम ही रहेंगे। रावण रावण ही।